सत्तर दशक के आरंभिक वर्षों में पूर्वी उत्तर प्रदेश के विभिन्न गाँवों –देहातों में दुबई , अबुधाबी, रियाल, धिरम, बोस्की, पीली धारी, पांच सौ पचपन आदि शब्द बेरोज़गार नौजवानों के सपनों में बसा करते थे । खाड़ी के इन रेगिस्तानी मुल्कों की जमीन काला सोना उगल रही थी। तेल की ताक़त से दुनिया तेजी से परिचित हो रही थी।पूर्वी उत्तर प्रदेश के छोटे बड़े कस्बों गाँवों से लाखों की तादाद में मजदूर इन रेगिस्तानों को आधुनिक शहरों में बदलने के लिए ईट गारे में अपना खून पसीना लगाया था।इन मजदूरों ,उनके सगे संबंधियों और उनके गाँवों वालों को मैं कभी बेहद नज़दीक से जानता था , लिहाज़ा दुबई का मतलब मेरे लिए बहुत कुछ और भी था।
असगर सहाब की लम्बी गाड़ी में शारज़ा जाते समय मुझे फूलपुर , सरायमीर, अम्बारी याद आ रहा था। हालाँकि दुबई में बसा हिंदुस्तान केवल पूर्वी उत्तर प्रदेश से आये लोगों से आबाद नहीं है, केरल, पंजाब, बिहार और बंगाल से भी बड़ी तादाद में पुरुष महिलाएं यहाँ काम कर रही हैं। पर आदमी जहाँ भी जाता है अपने पूर्वाग्रहों को साथ लिये जाता है सो मैं भी अपना खोया हुआ आजमगढ़ तलाशता रहा, और इसी तलाश ने मुझे टैक्सी ड्राईवर जमाल से मुलाकात करा दी. जमाल को मैं पहले केरल का समझ रहा था उसकी बोली ,उसका रंग वैसा ही था. जमाल ने बताया कि वह बलूचिस्तान का है और उसकी जुबान पर पश्तो की मिठास मुझे रबीन्द्रनाथ ठाकुर की अमर कृति ‘ काबुलिवाला ‘ की याद दिला रही थी। ‘ भाईजान, सब बर्बाद कर डाला, स्कूल में टीचर को मारता है ,बच्चों को मारता। हम यहाँ घर – रिश्तेदारों से दूर अट्ठारह सालों से काम करता है ‘। जमाल की बातें समझने की कोशिश करता हूँ। बहुत कुछ कहने की कोशिश में वह उलझ रहा था।‘ भाईजान , यह सियासत के चक्कर में हम सब अलग हो गये, साथ होते तो क्या क्या अपना मुलुक छोड़ कर आना पड़ता यहाँ ? सुनता है हिन्दोस्तान में लाखों बोरी अनाज सड़ जाती है,साथ होते तो दो वक़्त की रोटी की फ़िक्र तो नहीं होती, हमारा बाप दादा का बम्बई में कलकत्ता में कारोबार था , पर हम कभी नहीं गया उधर ‘ , जमाल एक सौ बीस की रफ़्तार से टैक्सी चला रहा था ,उसके सपने उसकी अपनी समझ के पंखों पर दुबई के आसमान पर चक्कर लगा रहे थे। मैं चोरों की तरह सड़क पर गुजरने वाली गाड़ियों को देख रहा था, ताकि मुझे जमाल से यह न कहना पड़े ‘ हाँ भाईजान , आपने सही सुना है , हमारे मुल्क में हर साल लाखों बोरियाँ अनाज की सड़ जाती है और यह भी कि हमारे यहाँ हजारों किसान ख़ुदकुशी करते हैं , हमारे बिहार केरल के भाई बहनों को अपने ही मुल्क के मुंबई में , (जहाँ कभी आपके दादा परदादों ने कारोबार किया था) लात जूते खाने पड़ते है। जमाल भाई , दुबई में रात दिन लाखों हिन्दुस्तानी , बांग्लादेशी , पाकिस्तानी अपना खून बहा कर जो कमाते है उसी से उनके घरों का चूल्हा जलता है। हमने बाँट छाँट कर ऐसे मुल्कों को बनाया है कि एक मजदूर को दो हाथों के लिए अपने मुल्क में कोई काम नहीं है।
दुबई में बलूचिस्तान का जमाल और केरल का स्वामी जब बांग्लादेशी मंसूर के साथ बात करता है तो हिंदी में बतियाता है, और जिसे पंजाब का जसविंदर हो या बंगाल का शुभोदीप हो , खूब समझता है। घरों से दूर विभिन्न मुल्कों और प्रदेशों से रोज़गार के लिए आये मजदूरों की मजबूरियों के बावजूद , यह मेरे लिए दुबई का सबसे बड़ा तोहफा था। इस श्रम के उपनिवेश में श्रमिकों की अपनी भाषा हिन्दी है।
दिल्ली में रहने वालों को लगेगा कि दुबई में गाड़ियों के हार्न काम नहीं करते। हजारों गाड़ियाँ सांय सांय कर बिना हार्न के चीखों के दिन रात सडकों पर बिना किसी दुर्घटना के आती जाती रहती है। सड़क के दोनों ओर ऊंची ऊंची, कांच से ढँकी कंक्रीट इमारतों में इन्सान दिखाई नहीं देते। न तो आसमान में चिड़िया दिखती है और न सड़क पर सिगरेट के टुर्रे या पान मसालों की पन्नियाँ। सुना है दुबई का हाल दो चार सालों से बेहाल रहने के बाद कुछ महीनों से यहाँ की अर्थनीति पटरी पर लौट रही है। मेरे नये दोस्त असगर भाई का आलिशान बंगला ज़ुमेरह आइलैंड में है। असगर अली अफ्रीका में पैदा हुए थे। लिखाई –पढ़ाई इंग्लॅण्ड और फ्रांस में की,अकूत पैसा कमाया पर आज भी चे ग्वेवारा को बंद मुट्ठी से सलाम करते है। उनका बस एक ही शौक है , पेंटिंग संग्रह करना ! बंगले की कोई भी दीवार ऐसी नहीं जहाँ सूज़ा, रजा, यामिनी राय, चुगतई से लेकर जोगेन चौधरी हुसैन साहब के चित्र न टंगे हो।मैं पूरे यकीन के साथ कह सकता हूँ कि किसी के लिए भी , उनका कला संग्रह देखना ‘ एशियाई कला संग्रहालय ‘ देखने जैसा अनुभव होगा। ‘ मुझे दुनिया की हर कला से प्रेम है पर मैं केवल हिंदुस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश के कलाकारों की कृतियाँ ही खरीदता हूँ ‘ , असगर भाई सगर्व यह दोहराते रहते है।
सादेकैन साहब से मेरी मुलाकात असगर भाई के एक बेहद ख़ास कमरे में हुई। गहरे हरे काले रंग के सतहों को खुरच (क्रास–हैचिंग) कर कैनवास पर तीखी सफ़ेद लकीरों के ताने बाने से उकेरी हुई तीन अशांत आकृतियाँ थी , जो मुझे जानी पहचानी सी लगी। इसके पहले 2005 में लाहौर के नेशनल कालेज ऑफ़ आर्ट्स की दीवार पर टंगे एक पेंटिंग को मैं काफ़ी देर तक देखता ही रहा था , चित्र कला विभाग के प्रमुख बशीर साहब ने कहा था ‘सादेकैन साहब का काम है‘। मेरे लिए यह एक सुखद संयोग था जो दुबई में दूसरे ही दिन हुसैन साहब और सादेकैन साहब पर एक कार्यक्रम था, जिसे स्थानीय कैपिटल क्लब में आयोजित किया गया था।प्रचुर मात्र में उत्कृष्ट पेय , उसी मात्र में विविध व्यंजनों और विभिन्न देशों के आये सुगन्धित अतिथियों की उपस्थिति में कुछ चित्र हुसैन साहब के थे कुछ सादेकैन साहब के। मेरे साथ सादेकैन साहब के भतीजे सलमान अहमद थे (जो सादेकैन फ़ाउंडेशन के अध्यक्ष है और अमेरिका में रहते है ), मुझे सादेकैन साहब के एक एक चित्र समझा रहे थे।पर दिक्कत एक थी , और वह यह कि मैं यह नहीं समझ पा रहा था कि किस वज़ह से सादेकैन और हुसैन को एक साथ रख कर यह कार्यक्रम का आयोजन किया गया था। क्योंकि इन दोनों कलाकारों का कला रचना का उद्देश्य ही बिलकुल भिन्न रहा है । एक कलाकार ने जिंदगी भर एक भी चित्र नहीं बेचा , वहीं दुसरे कलाकार का कला रचना के पीछे यही एक मात्र घोषित उद्देश्य रहा । जनता के पक्ष में खड़े होकर सादेकैन ने जीवन के पथरीली यथार्थ को चित्रों में दिखाया, वहीं हुसैन साहब समाज के प्रतिष्ठित जनों को चित्र में अमर किया। सवाल यहाँ किसी कलाकार के छोटे या बड़े होने का नहीं है, सवाल है अपने लिए प्राथमिकताओं के चयन का , जिसकी आज़ादी हुसैन साहब को भी उतनी थी , जितनी सादेकैन साहब को। इसीलिए कैपिटल क्लब में हुसैन साहब के चित्रों की मौजूदा कीमतों पर बात करते लोगों की किलकारियों के बीच सादेकैन साहब की ख़ामोशी को मैं साफ़ सुन पा रहा था। रात्रि भोज के पहले दो और कार्यक्रम थे। पहला हुसैन साहब की नातिन द्वारा बनाया गया लघु फ़िल्म ” माई बाबा ” और दूसरा सलमान अहमद का सादेकैन साहब की कला और जीवन पर शक्ति बिंदु प्रस्तुति (पवार पॉइंट प्रेजेंटेशन)! फिल्म बेहद ईमानदार ढंग से बनायी गयी एक घरेलु डाक्युमेंट्री सी थी। पर हम एक बार फिर जान सके कि नंगे पैरों चलने और ताजिंदगी अपने बचपन की गरीबी की बात को दोहराने वाले हुसैन साहब की कुछ खास पसंदीदा चीज़ों में महंगी और तेज़ रफ़्तार वाली गाड़ियाँ , और लन्दन और दुबई के सबसे महंगे होटलों में खाना शामिल था।और यह ऐसा समाज है ,जहाँ न तो तेज़ रफ़्तार गाड़ियाँ कोई किसी कलाकार को भेट में देता है और न ही किसी महंगे होटल में कोई मुफ्त पानी तक पिलाता है। लिहाज़ा ऊँची जिन्दगी जीने के लिए ऊंचे पैसे लगते है , और ऊंचे पैसे कमाने के लिए किसी अरबपति के बेटे की शादी के निमंत्रण के पत्र वाहक के रूप में गणेश के चित्र बना कर हो या इंदिरा गाँधी को दुर्गा के रूप में चित्रित करने जैसे कलाकर्मों की अहमियत को हुसैन साहब ने शुरू से ही बखूबी पहचाना था। सादेकैन साहब फ़क़ीर थे, किसी ने खाना खिला दिया तो खा लिया नहीं तो सिगरेट और शराब तो थी ही जिंदगी जीने के लिए। कुछ लोग एक बोतल शराब थमा कर उनसे पेंटिंगें ले जाते रहे, कुछ चाहने वाले ऐसे भी थे जो जब भी मिलने आते तो साथ कुछ न कुछ खाने के लिए जरूर साथ लाते।सादेकैन साहब अकेले थे पर उन्हे आम लोगों का भरपूर प्यार मिला था।
दुबई में कराची से अपनी प्रदर्शनी के लिए मुअज्जम अली आये ही थे। मुअज्जम जलरंग में राजस्थानी (थार) औरतों के चित्र बनाते है।मुअज्जम ने एक भित्ति चित्र (म्यूरल) बनाते समय सादेकैन साहब के साथ लम्बे समय तक काम किया था। उन्होंने सादेकैन साहब और ऊंचे पैसे की एक दिलचस्प वाकया सुनाया। सादेकैन साहब अपने को फ़क़ीर मानते थे। एक दिन अपने नौकर को परेशान देख कर सादेकैन साहब ने उससे उसकी परेशानी की वज़ह पूछी। पता चला की बेटी की शादी तय हो चुकी है पर पूरे पैसों का अभी तक इन्तेजाम नहीं हो पाया है।‘कितने कम पड़ रहे है?’ सादेकैन साहब के इस सवाल के जवाब में नौकर ने ससंकोच कहा ,’ जनाब, अस्सी हज़ार !’ सादेकैन साहब ने उसे आश्वस्त किया और चाय लाने भेज दिया। थोड़ी देर बाद कोई कला संग्राहक सादेकैन साहब से मिलने आया। एक पेंटिंग की और इशारा करते हुए उस सज्जन ने सादेकैन साहब से उस पेंटिंग की कीमत पूछी। सादेकैन साहब तैयार थे , बोले ‘अस्सी हज़ार ! ‘ खरीददार को थोड़ा आश्चर्य हुआ, हिम्मत जुटाकर उसने सादेकैन साहब से पूछ ही लिया , ‘ अस्सी हज़ार ही क्यों?’. सादेकैन साहब ने बड़ी सादगी के साथ जवाब दिया ‘ मेरे नौकर के बेटी की शादी है और इसमे अस्सी हज़ार कम पड़ रहे है , सो मेरी पेंटिंग अस्सी हज़ार की , और अगर उसकी बेटी की शादी में एक लाख कम पड़ते तो इस पेंटिंग की कीमत एक लाख होती।‘
इतने सालों बाद भी मुअज्जम अली सादेकैन साहब की एक नायाब नसीहत को भी याद रखे है। सादेकैन साहब ने अपने गिलास में शराब डालते हुए कहा था , ” सैयद मुअज्जम अली रिज़वी , इस शराब को कभी हाथ न लगाना। कोई अगर पीने के लिए जबरदस्ती करे तो कहना, मैं तो पी ही नहीं सकता , क्योंकि मेरे हिस्से की पूरी शराब तो सादेकैन पी कर चला गया है। ”
इस उप महादेश में हमारे घर के इतने करीब एक ऐसा जनपक्षधर कलाकार काम कर रहा था इसकी खबर हमारी पीढ़ी के कम ही लोगों को है। दिल्ली के करीब अमरोहा में 1930 में जनमे थे सैयद सादेकैन अहमद नक़वी। फ्रांस में चित्रकला विद्यालय पढने गये थे लिहाज़ा उन पर विदेशी कला का प्रभाव पड़ना स्वाभाविक था।साहित्य से उनका लगाव शुरू से ही था।पेरिस मे रहते समय उन्होंने अल्बेर कामू का विश्व प्रसिद्ध उपन्यास ‘ द स्ट्रेंजर ‘ ( या ‘द आउटसाइडर‘ ) उपन्यास का चित्रण (इलस्ट्रेशन)भी किया था। चित्रकला में उनका विषय ठेठ एशियाई था। उन्होने दुनिया के मेहनतकशों के सुख दुःख को किसी मुल्क के दायरे में कभी नहीं बांधा। उनके चित्रों धार्मिक कट्टरता का भी कोई स्थान नहीं रहा। उर्दू कैलिग्राफी (अक्षरांकन ) के वे माहिर थे , एक लम्बे समय तक उन्होंने कैलिग्राफी पर काम किया। उनकी कई पेंटिंगों में हम कविताओं के उद्धरण पाते है जो सहज ही हमें कविता पोस्टरों की याद दिलाते है।
दुबई में हमाइल आर्ट गैलरी में अचानक ही सादेकैन की एक स्याह सफ़ेद कृति पर मेरी नज़र अटक गयी। चित्र में एक राक्षस एक लबादा सा ओढ़े, गहने पहने खड़ा है। उनके पैरों के पास एक गरीब आदमी पूजा की मुद्रा में झुका हुआ है।पर जो बात हमें इस चित्र में सबसे ज्यादा चौकाता है, वह है एक कौआ , जो उस आदमी की पीठ पर आश्वस्त बैठा है। मानो सदियों यह आदमी योँ ही नमन की मुद्रा में है जिसके चलते कौवा इसकी पीठ पर , इसे मृत या काठ का समझ कर बेपरवाह बैठा हुआ है। चित्र में एक कविता की दो पंक्तियाँ लिखी हुई है।सादेकैन निःसंदेह जनपक्षधर ही नहीं बल्कि राजनैतिक चित्रकार थे, लिहाज़ा मुझे लगा कि ही चित्र को एक नया आयाम देने के उद्देश्य से ही इन पंक्तियों को यहाँ इस्तेमाल किया गया होगा और जिसे मैं समझ नहीं पा रहा था। इस पर जब मैने गुलज़ार साहब की मदद मांगी तो सचमुच यह चित्र मेरे सामने नई प्रासंगिकताओं के साथ और भी अर्थपूर्ण हो उठा। इस चित्र में महान कवि इक़बाल (जन्म नवम्बर 9, 1877- मृत्यु अप्रेल 21,1938) की कविता की दो पंक्तियाँ है जिसके जरिये वे कहते है कि अत्याचार और शोषण का राक्षस आज लोकतंत्र का लबादा ओढे तुम्हारे सामने खड़ा है और तुम उसे आज़ादी की नीलम परी समझ रहे हो।
सादेकैन खुद भी बड़ी अच्छी कविता लिखते थे। चित्रकार को उन्होंने एक मेहनतकश मज़दूर के समकक्ष रखते हुए लिखा है
फिर यह किया रंगों का झमेला मैने ,
इस तेल से फन का खेल खेला मैने ,
इस अपने बदन की हड्डियों को दिन रात
तखलीक के कोल्हू में है पेला मैने।
सादेकैन साहब की कई कवितायेँ है जहाँ उनके जीवन जैसा ही बनावटीपन नहीं है।यह कविता तो सीधे हमारे मर्म को छू जाती है ,
दिन रात हो जब शाम या पौ फूटती है
कन्नी मेरे हाथों से नहीं छूटती है
फिर काम से दुख जाता है इतना मेरा हाथ
रोटी को जो तोड़ू तो नहीं टूटती है।
आज पाकिस्तान का कला बाज़ार सादेकैन के उन चित्रों के इर्द गिर्द फल फूल रहा है जिसे सादेकैन ने या तो उपहार में लोगों को दिया था या फिर उनके स्टूडियो से उनकी अपनी असावधानी के चलते चोरी हो गई थी। सादेकैन की पेंटिंग्स आज नीलाम घरों के विशेष आकर्षण बन चुके है लिहाज़ा सादेकैन साहब के चित्रों के अब प्रतिकृतियाँ ही हम देख पाते है।सादेकैन साहब के चित्रों के साथ साथ उनके भित्ति चित्र (म्यूरल) हमें अचंभित करते हैं। पाकिस्तान के मंगला बांध के लिए बनाया गया म्यूरल विश्व के कुछ महत्वपूर्ण भित्ति चित्रों में से एक है। बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय , अलीगढ विश्वविद्यालय और हैदराबाद में उनके म्यूरल आज भी संरक्षित है, दिल्ली में भी उनके कई चित्र मौजूद है।
सलमान अहमद अपने साथ दस बारह चित्रों के प्रिंट्स लाये थे, जिन्हें उन्होंने दुबई के इस आयोजन में प्रदर्शित किया। सलमान अहमद ने सादेकैन की जिंदगी और उनकी कला के रिश्तों के बारे में एक बेहद खूबसूरत वाकया सुनाया। सादेकैन साहब का अपने एक नौकर को अपने पैसों से एक रिक्शा खरीदवा दिया था, जो रोज़ उन्हे स्टूडियो ले आता था और रात को घर पंहुचा देता था। दिन के बाकि वक़्त वह रिक्शा चला कर पैसे कमाता था। एक दिन शाम को सादेकैन साहब ने देखा कि उनका रिक्शे वाला दिन भर की कड़ी मेहनत के बाद थक कर रिक्शे की सवारी वाली सीट पर अपना बदन टिकाय सो रहा था। सादेकैन साहब को यह दृश्य छू गया और उन्होंने इसे एक पेंटिंग में उतार लिया। इस पेंटिंग का एक रंगीन प्रिंट सलमान साहब ने इस प्रदर्शनी में शामिल किया था , मेरे लिए इस महान कृति का प्रिंट देखना भी एक सौभाग्य की बात थी। सादेकैन साहब से किसी जलसे में किसी ने सवाल किया था कि उनके लिए सबसे खूबसूरत चेहरा किसका है। सवाल पूछने वाले को उम्मीद थी कि सादेकैन किसी औरत की खूबसूरती का जिक्र करेंगे पर सादेकैन का जवाब था , ‘ सारे दिन हाड़ तोड़ मेहनत के बाद जब एक थका हुआ मजदूर आराम की नींद ले रहा होता है , तो मुझे उसका चेहरा सबसे खूबसूरत लगता है।‘ सादेकैन साहब की जिंदगी और कला के बीच कहीं कोई अंतर नहीं था।
दुबई के कैपिटल क्लब के इस मदिर माहौल की मद्धिम रौशनी में, अपने रिक्शे पर आराम करता हुआ वह मेहनतकश रिक्शेवाले की तस्वीर को देखते हुए मैं सोच रहा था कि दिल्ली से कराची तो शायद दूर है पर अमरोहा कब हमसे इतना दूर हो गया। और यह भी, कि इस रिक्शे वाले की पहचान क्या है ? क्या वह कराची का है , या कि ढाका का या फिर लखनऊ या अमरोहा का ?
दुबई में रात गहरा चुकी थी जब मैं कैपिटल क्लब के बहार आया। इसी शहर के मजदूर बस्तियों में सादेकैन साहब के रिक्शे वाले से थोड़ा सा चैन–सुकून उधार लेकर, दूर दराज़ के मुल्कों से रोटी कमाने आये, दिन भर के थके हुए लाखों मजदूर अपने अपने बिस्तरों में इसी ‘ खूबसूरती ‘ के साथ सो रहे होंगे।